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ते नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो अर्य॒मायुरिन्द्र॑ ऋभु॒क्षा म॒रुतो॑ जुषन्त। नमो॑भिर्वा॒ ये दध॑ते सुवृ॒क्तिं स्तोमं॑ रु॒द्राय॑ मी॒ळ्हुषे॑ स॒जोषाः॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

te no mitro varuṇo aryamāyur indra ṛbhukṣā maruto juṣanta | namobhir vā ye dadhate suvṛktiṁ stomaṁ rudrāya mīḻhuṣe sajoṣāḥ ||

पद पाठ

ते। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। अ॒र्य॒मा। आ॒युः। इन्द्रः॑। ऋ॒भु॒क्षाः। म॒रुतः॑। जु॒ष॒न्त॒। नमः॑ऽभिः। वा॒। ये। दध॑ते। सु॒ऽवृ॒क्तिम्। स्तोम॑म्। रु॒द्राय॑। मी॒ळ्हुषे॑। स॒ऽजोषाः॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:41» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (मरुतः) मनुष्य (नमोभिः) सत्कार और अन्नादिकों से (मीळ्हुषे) सुख का सेचन करते हुए (रुद्राय) दुष्ट आचरणों के करनेवाले जनों के रुलानेवाले के लिये (सजोषाः) तुल्य प्रीति के सेवन करनेवाले हुए (सुवृक्तिम्) उत्तम प्रकार वर्जन होता है जिससे उस (स्तोमम्) प्रशंसा को (दधते) धारण करते (वा) वा (जुषन्त) सेवन करते हैं (ते) वे (मित्रः) मित्र (वरुणः) श्रेष्ठ आचरण करनेवाला (अर्य्यमा) न्याय का ईश और (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् (ऋभुक्षाः) बड़ा विद्वान् (नः) हम लोगों के लिये (आयुः) जीवन का सेवन करें ॥२॥
भावार्थभाषाः - उन्हीं विद्वानों को उत्तम समझना चाहिये जो अपने सदृश सब प्राणियों में वर्त्ताव करें ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

ये मरुतो नमोभिर्मीळ्हुषे रुद्राय सजोषाः सन्तः सुवृक्तिं स्तोमं दधते वा जुषन्त ते मित्रो वरुणोऽर्य्यमेन्द्र ऋभुक्षाश्च न आयुर्जुषन्त ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) (नः) अस्मभ्यम् (मित्रः) सखा (वरुणः) श्रेष्ठाचारः (अर्य्यमा) न्यायेशः (आयुः) जीवनम् (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् (ऋभुक्षाः) महान् विद्वान् (मरुतः) मनुष्याः (जुषन्त) सेवन्ते (नमोभिः) सत्कारान्नादिभिः (वा) (ये) (दधते) (सुवृक्तिम्) सुष्ठुवर्जनम् (स्तोमम्) श्लाघाम् (रुद्राय) दुष्टाचाराणां रोदकाय (मीळ्हुषे) सुखं सिञ्चते (सजोषाः) समानप्रीतिसेविनः। अत्र वचनव्यत्ययेनैकवचनम् ॥२॥
भावार्थभाषाः - त एव विद्वांस उत्तमा विज्ञेया ये स्वात्मवत्सर्वेषु प्राणिषु वर्त्तेरन् ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे आपल्यासारखाच व्यवहार सर्व प्राण्यांशी करतात त्याच विद्वानांना उत्तम समजले पाहिजे. ॥ २ ॥